Those beautiful locks of yours,
Cover your face like a shroud.
Resting on your shoulders, they garland
your smile.
Those hips of yours,
Make me feel like a missionary.
Those curves of yours,
Make me go down on all fours.
Where I attempt to capture the Trials, Travails and Tribulations of Law, Love and Life!!!
Those beautiful locks of yours,
Cover your face like a shroud.
Resting on your shoulders, they garland
your smile.
Those hips of yours,
Make me feel like a missionary.
Those curves of yours,
Make me go down on all fours.
“स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों और अन्य देशों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए, देश आज एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय करने जा रहा है। आज रात बारह बजे से पूरे देश में, कृपया ध्यान से सुनें, सम्पूर्ण देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन होने जा रहा है। हिंदुस्तान को बचाने के लिए और उसके प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए आज आधी रात से लोगों के घरों से बाहर निकलने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जा रहा है।”
यादव परिवार के घर कहलाने जाने वाली बंजर-सी चारदीवारी पर भारत के प्रधानमंत्री के यह "बुलंद" शब्द बिजली की तरह कड़कड़ाते हुए गिरे। तीन जनों का यह जवान परिवार मुंबई की चमक दमक और बड़े परदे वाले सितारों से परे, एक छोटी सी खोली में अपनी रातें गुजारा करता था। दिन का आशियाना तो अपने-अपने कामकाज में व्यस्त हो कर जैसे-तैसे निकल जाता था, सिर्फ उन अंधेर भरी रातो से कवच धारण करने के लिए यह पाँच हजार रुपए महीने के किराए की खोली का इस्तेमाल होता था। ज्यादा माल-समान उनके पास था नहीं, आखिर जरूरत से फालतू खरीदने की हैसियत ही कहाँ थी। न उनके मां-बाप की हुआ करती थी और न ही उनके बच्चों की होने वाली थी, थी तो बस एक उम्मीद कि जैसे अभी ऊपर वाला इम्तेहान ले रहा है, वैसे ही समय आने पर आशीर्वाद की वर्षा भी करवाएगा। बेहतर जिंदगी की ये झूठी उम्मीद अभिषेक और सुशीला यादव को अपने आठ वर्षीय बेटे गौरव के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव से मुंबई शहर तक खींच लाई थी। खैर, इस दंपत्ति को भी यह अहसास होना, अलबत्ता धीरे-धीरे, शुरू हो चुका था कि यह चौदह-बाय-बारह का कमरा (जिसमे एक पैखाना और रसोई भी शामिल थे) उनके जीवन में कोई उद्धार नहीं ला पाएगा, बल्कि और सड़ा कर छोड़ेगा। परंतु अब उनके पास और उपाय क्या था सिवाय इसी जिंदगी में पिसे चलते-चले जाने के। कर्जा सिर पर चढ़ा ही रखा था और फिर गांव छोड़ के भी इसलिए ही तो आएं थे कि अपनी छोटी सी जमीन पर फसल बो कर काम नहीं चल रहा था। यह उनके लिए एक बड़ा असमंजस का मुद्दा बन चुका था और इसी विषय पर सोच विचार करते हुए अभिषेक और सुशीला दिन भर की थकान मिटाने के लिए नींद की तरफ करवट ले लेते थे। अभिषेक रोज सुबह मजदूरी ढूंढने के उद्देश्य से निकलता और भीड़ में विलप्त हो जाता था जबकि सुशीला पास की ऊंची इमारतों में बसे लोगों के घरों में रोजमर्रा के काम करती थी। उन घरों में काम करते वक्त वो अक्सर सोचती थी कि उसके पति ने भी कभी इस इमारत को खड़ा करने में अपनी मजदूरी का योगदान दिया होगा। इस से आगे बढ़कर यह सवाल भी उसके मन में उठता था कि जब इन घरों को बनाने का काम भी उन्ही लोगो का था, और बाद में इनकी देख-रेख तथा साफ-सफाई भी उनके जिम्मे आ पड़ती थी, तो फिर रिहाइश का आनंद कोई और क्यों उठा रहा था? ऐसा कैसे हो सकता था कि सारा खून पसीना एक करने के बाद भी फल किसी और को मिल रहा था? सुशीला ने ये सवाल अब तक अपने आप से कई सौ बार पूछ लिया था, पर कोई ढंग का निष्कर्ष नहीं निकाल पाई थी।