“स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों और अन्य देशों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए, देश आज एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय करने जा रहा है। आज रात बारह बजे से पूरे देश में, कृपया ध्यान से सुनें, सम्पूर्ण देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन होने जा रहा है। हिंदुस्तान को बचाने के लिए और उसके प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए आज आधी रात से लोगों के घरों से बाहर निकलने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जा रहा है।”
यादव परिवार के घर कहलाने जाने वाली बंजर-सी चारदीवारी पर भारत के प्रधानमंत्री के यह "बुलंद" शब्द बिजली की तरह कड़कड़ाते हुए गिरे। तीन जनों का यह जवान परिवार मुंबई की चमक दमक और बड़े परदे वाले सितारों से परे, एक छोटी सी खोली में अपनी रातें गुजारा करता था। दिन का आशियाना तो अपने-अपने कामकाज में व्यस्त हो कर जैसे-तैसे निकल जाता था, सिर्फ उन अंधेर भरी रातो से कवच धारण करने के लिए यह पाँच हजार रुपए महीने के किराए की खोली का इस्तेमाल होता था। ज्यादा माल-समान उनके पास था नहीं, आखिर जरूरत से फालतू खरीदने की हैसियत ही कहाँ थी। न उनके मां-बाप की हुआ करती थी और न ही उनके बच्चों की होने वाली थी, थी तो बस एक उम्मीद कि जैसे अभी ऊपर वाला इम्तेहान ले रहा है, वैसे ही समय आने पर आशीर्वाद की वर्षा भी करवाएगा। बेहतर जिंदगी की ये झूठी उम्मीद अभिषेक और सुशीला यादव को अपने आठ वर्षीय बेटे गौरव के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव से मुंबई शहर तक खींच लाई थी। खैर, इस दंपत्ति को भी यह अहसास होना, अलबत्ता धीरे-धीरे, शुरू हो चुका था कि यह चौदह-बाय-बारह का कमरा (जिसमे एक पैखाना और रसोई भी शामिल थे) उनके जीवन में कोई उद्धार नहीं ला पाएगा, बल्कि और सड़ा कर छोड़ेगा। परंतु अब उनके पास और उपाय क्या था सिवाय इसी जिंदगी में पिसे चलते-चले जाने के। कर्जा सिर पर चढ़ा ही रखा था और फिर गांव छोड़ के भी इसलिए ही तो आएं थे कि अपनी छोटी सी जमीन पर फसल बो कर काम नहीं चल रहा था। यह उनके लिए एक बड़ा असमंजस का मुद्दा बन चुका था और इसी विषय पर सोच विचार करते हुए अभिषेक और सुशीला दिन भर की थकान मिटाने के लिए नींद की तरफ करवट ले लेते थे। अभिषेक रोज सुबह मजदूरी ढूंढने के उद्देश्य से निकलता और भीड़ में विलप्त हो जाता था जबकि सुशीला पास की ऊंची इमारतों में बसे लोगों के घरों में रोजमर्रा के काम करती थी। उन घरों में काम करते वक्त वो अक्सर सोचती थी कि उसके पति ने भी कभी इस इमारत को खड़ा करने में अपनी मजदूरी का योगदान दिया होगा। इस से आगे बढ़कर यह सवाल भी उसके मन में उठता था कि जब इन घरों को बनाने का काम भी उन्ही लोगो का था, और बाद में इनकी देख-रेख तथा साफ-सफाई भी उनके जिम्मे आ पड़ती थी, तो फिर रिहाइश का आनंद कोई और क्यों उठा रहा था? ऐसा कैसे हो सकता था कि सारा खून पसीना एक करने के बाद भी फल किसी और को मिल रहा था? सुशीला ने ये सवाल अब तक अपने आप से कई सौ बार पूछ लिया था, पर कोई ढंग का निष्कर्ष नहीं निकाल पाई थी।
बेटे गौरव को पड़ोस में बसने वाले अन्य बच्चो के साथ सुबह-सुबह ही सरकारी विद्यालय में भेज दिया जाता था, जहां वह दिन भर ख़ुशी से खेल-कूद और पढ़ाई में मगन रहता था। उस बेचारे को क्या अंदाजा था की उसके परिवार की गरीबी उसके बचपन को कितनी सारी अनोखी चीज़ों से वंचित रख रही थी। एक तरफ उसके हमउम्र बच्चे न जाने किन भिन्न प्रकार की आधुनिक सुविधाओं से लैस कक्षाओं में विद्या का आदान-प्रदान कर रहे थे और वहीं दूसरी तरफ गौरव की कक्षा का रूप चरित्र कुछ ऐसा था कि वहां बैठकर अव्वल-से-अव्वल छात्र भी पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पाता। एक समय में जो दीवारे सफेदी से भरी हुआ करती थी उन को अब इस मात्रा में लाल-पीले दाग-धब्बों से पोता जा चुका था कि वह पहचान में ही ना आए। लकड़ी की मेज़-कुर्सियां इतनी पुरानी थी कि उनमे से दीमको की दो-चार पीडिया ज़िन्दगी भर का भोजन उपलब्ध कर चुकी थी। पुरे कमरे में केवल एक खिड़की थी, जिसके ठीक सामने ईमारत के बन जाने से कक्षा के अंदर अँधेरे का साया छा गया था और किसी स्थानीय अधिकारी ने इतनी सी ज़ुर्रत भी अनिवार्य नहीं समझी कि वहाँ प्रकाश की उचित व्यवस्था करी जाए। फिर उस जरा-जीर्ण विद्यालय में भर्ती होने वाले गरीब बच्चों की शिक्षा को लेकर कौन ही चिंतित होता जब उनके अपने माँ-बाप को इस बारे में सोचने का वक़्त नहीं मिलता था। इस स्थिति में माँ-बाप पर भी कैसे दोष लादा जाए जब वह सवेरे से सांझ तक मेहनत की दिनचर्या में खोये रहते थे, जिस के ज़रिये ही परिवार को दो समय का खाना मिल पाता था। बच्चों को सरकारी विद्यालय भेजने का ये भी उनके लिए एक बड़ा प्रलोभन था कि वहाँ मिड-डे मील की बदौलत उनको पौष्टिक आहार मिल जाता था जो कि उनको घर में मिलना नामुमकिन प्रतीत होता था।
जीवन जैसे-तैसे क़र्ज़ के पहाड़ के नीचे दब-दबकर कट रहा था कि २४ मार्च, २०२० को करी गयी तालाबंदी की घोषणा ने उनकी कथा में एक नया, खतरनाक मोड जोड़ दिया। सारे टीवी चैनल पर इस घोषणा की खबर देख कर अभिषेक थोड़े सहम गए और तालाबंदी के बारे में और पुख्ता जानकारी प्राप्त करने के लिए पास-ही रहने वाले अपने मित्र को कॉल मिलाया। एक बेहद संक्षिप्त वार्तालाप में अभिषेक ने पाया कि उसका मित्र भी उतना ही डरा हुआ था और उसके पास भी कोई अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं थी। लगभग पाँच-दस मिनट बाद यह खबर टीवी पर चलने लगी की आधी रात से ही सभी प्रकार के कामकाज और कार्यालय बंद कर दिए जाएंगे, जिसमे निर्माण कार्य भी शामिल होगा। इस बात को सुन-समझकर मानो अभिषेक के पैरों-तले जमीन खिसक गई और उसे चिंता सताने लगी की अगर यह तालाबंदी तीन हफ्तों तक चली तो उनकी कमाई का जरिया पूरी तरह ठप हो जाएगा। वैसे ही रोजमर्रा के खर्चे निकालने के लिए उनका दैनिक वेतन कम पड़ रहा था और अगले महीने के शुरुआत में किराये एवं कर्जे की किश्तों का भुगतान भी करना होगा। अभिषेक ने जब अपनी यह चिंता सुशीला के समक्ष रखी तो उसने कहा कि टीवी वालों की अब आदत सी बन गई है बातों का पतंगड़ बनाने की। उसका मानना था की तालाबंदी की सख्ती का विवरण महज लोगों को डराने के लिहाज से किया जा रहा है और अंत में बस छोटा-मोटा कर्फ्यू ही लगेगा जिसमे उन्हे कोई दिक्कत नहीं पहुचेगी। सुशीला के इस जवाब से अभिषेक को कुछ हद तक मन की शांति मिली और वह दोनों अपनी मेहनत से कमाई गई नींद की गोद में जा समर्पित हुए। यादव परिवार की यह कहानी समाज के उस समूचे तबके की कहानी है जिस पर इस जानलेवा लॉकडाउन ने कोरोना से भी ज्यादा कहर बरसाया; जिनकी रोजी-रोटी बिना परवाह किए बगैर रातों-रात छीन ली गई; जिनको सरकार की अनदेखी ने ऐसी विपत्ति में धकेल डाला जो उनकी पहले से तड़पाने वाली दुनियाभर की मुसीबतों से भी बदत्तर जान पड़ी; जिन्हे हजारों मील पैदल चल कर अपने गांवों तक लौटना पड़ा, और, जिनको आपदा में ताली-थाली जैसे ढोंगो का हिस्सा बनने का अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ।
अगली सुबह दोनों अभिषेक और सुशीला अपने-अपने काम पर निकलने के लिए सामान्य जोश और उमंग के साथ तैयार हुए और चल पड़े। गौरव का विद्यालय भी बस्ती से बाहर के रास्ते मे पड़ता था और वह अपने माता-पिता के साथ ही अपना बसता ले कर झूलते हुए चल पड़ा। उनके आस-पास रोज की तरह ही साधारण चहल-पहल दिखाई पड़ रही थी जहां हर घर मे लोग सुबह के काम निपटा के अपने गंतव्यों पर पहुचने की जल्दी मे थे। कुछ देर चलने के बाद गौरव को अपनी कक्षा के कुछ दोस्तों का जत्था मिल गया और वह अपने अभिभावकों को अलविदा कह कर उनके साथ जुड़ गया। सुशीला मुड़ कर बगल की ऊंची इमारतों की तरफ चल पड़ी और अभिषेक अपने मित्र शंकर के इंतज़ार मे रुक गया जिसके साथ वह कुछ दूर स्थित लेबर चौक तक पैदल जाता था। थोड़ी देर के इंतज़ार के बाद जब वह दोनों आगे निकल रहे थे तब पीछे से गौरव की आवाज आयी। पीछे मुड़े तो उन्होंने देखा की गौरव और बाकी बच्चे खुशी से दौड़ते हुए बस्ती की तरफ लौट रहे थे। जब अभिषेक ने गौरव से सवाल किया तो पता चला की तालाबंदी के चलते विद्यालय बंद हो गया और बच्चों को घर मे रहने के लिए कहा गया था। यह जान कर अभिषेक और शंकर को अपनी पिछली रात की वार्तालाप से पनप रहा डर याद आ गया और उन्होंने गौरव को पड़ोसियों के घर जाने को कहकर अपने कदम लेबर चौक की तरफ तेजी से बढ़ाए। इस दरमियान जब सुशीला अपने पहले घर मे काम करने पहुँची तब इमारत के प्रवेश द्वार पर ही उसे चौकीदार ने रोक लिया और अंदर जाने की अनुमति नहीं दी।
जब सुशीला ने घर के मालिक से बात करने का अनुरोध किया तो चौकीदार ने इन्टर्काम से उसे कॉल लगा कर दिया। मालिक से बात करने पर भी सुशीला को प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, बल्कि एक झटका ही मिला जब यह साफ शब्दों मे उसको बोला गया की तालाबंदी के दौरान उसे काम पर आने की कोई जरूरत नहीं है। सुशीला को इस वक्त भी कुछ ज्यादा अजीब नहीं महसूस हुआ क्योंकि उसे ऐसा लगा कि मालिक ने तालाबंदी की आना-कानी करके अपना पल्ला झाड लिया होगा और किसी दूसरे को काम पर रख लिया होगा। चौकीदार ने द्वार पर ही उसका हिसाब कर दिया और वह अपने अगले घर की ओर जाने लगी। इस अगली इमारत मे सुशीला चार घरों मे काम करती थी और रोज दो से तीन घंटे यहीं बिताती थी। जब वह वहाँ पहुंची तो फिर उसी प्रक्रिया से सोसाइटी के चौकीदार ने प्रवेश द्वार खोलने से इनकार कर दिया और बताया की सभी आवासियों ने मिल कर ये निर्णय लिया था कि बाहर के किसी भी व्यक्ति को अंदर आने न दिया जाए। इस पल में सुशीला को कुछ घबराहट हुई और उसने तुरंत अपना फोन निकालकर घर मालिकों को कॉल करना शुरू किया। जब उन्हे यह बताया की उसको काम करने के लिए सोसाइटी के अंदर नहीं आने दिया जा रहा है, तब यहाँ पर भी पहली इमारत जैसे ही मालिक ने तालाबंदी के दौरान काम पर आने से उसको मना कर दिया। जब सुशीला ने अपनी तनख्वाह का प्रश्न किया तो मालिक ने कठोर स्वरों मे कहा कि जब वह काम नहीं करेगी तब तनख्वाह का सवाल ही कैसे पैदा होगा। मालिक ने ऊपर से खरी-खोटी यह भी सुना डाला कि सुशीला जैसे नीचे लोग हमेशा बिना मेहनत करे पैसों का नापतोल करने आ जाते है और मेहनत की कमाई पर कामयाबी पाने वालों पर परजीवी बन कर रहते है। इस बात से सुशीला आहत हुई और बदले मे कटुता से काफी कुछ कहना चाहती थी, पर अपनी हैसियत के दायरों के कारण नहीं कह सकी। उसने फिर भी हिम्मत करके मालिक से इतना पूछ लिया कि ऐसी क्या मजबूरी है जिससे वो काम करने के लिए अंदर प्रवेश नहीं ले सकती। इसके जवाब मे जब मालिक ने बताया कि उनको सुशीला जैसे लोगों से कोविड महामारी संक्रमण का अधिक खतरा है, तब वह और विचलित हो उठी तथा मानसिक तौर पर हिल गई। इतना कुछ सुनने के बाद सुशीला किसी भी घर मे काम करने की उम्मीद खो बैठी थी और भारी कदमों के साथ वापस अपनी खोली की तरफ लौटने लगी।
अभिषेक और शंकर को गड़बड़ी के लक्षण लेबर चौक जाने के रास्ते मे ही दिखाई दे गए थे जब उन्हे कोई भी दुकान या व्यापार खुले होने की झलक नहीं मिली और न ही उन्हे रोज की तरह ढेर सारी गाड़ियों की आवाजाही नजर आयी। उनकी पूरी बीस मिनट की पैदल यात्रा इतनी सुनसान रही कि दोनों के आश्चर्य से रोंगटे खड़े हो गए और वह राहत की सांस तभी ले पाए जब चौक पर पहुँच कर उनको अपने साथी मिले। यह राहत भी बहुत अल्पकालिक साबित हुई क्योंकि वहाँ हाजिर सभी मजदूरों ने पाया कि उस रोज कोई भी ठेकेदार काम के लिए उन्हे इखट्टा करने के लिए मौजूद ही नहीं था। काफी समय गुजर जाने के बाद भी कोई काम सामने नहीं आया तो सभी उपस्थित जनों मे इस विपरीत स्तिथि को सुलझाने पर हो-हल्ला मच गया क्योंकि चारों तरफ से प्रश्न-ही-प्रश्न आ रहे थे, उत्तर की भनक किसी के पास नहीं थी। और आखिर होती भी कैसे? एक मत वहाँ पर यह था की प्रशासन ने जल्दबाजी मे बिना विचार-विमर्श किए तालाबंदी की घोषणा कर दी थी इसलिए अब कुछ दिनों की मुश्किल झेलनी पड़ेगी जब तक कि कोई समाधान नहीं आता। पर दूसरी तरफ से यह संकेत आ रहे थे कि सरकार ने बिना सोचे-समझे नहीं, बल्कि इसके विरुद्ध उन्होंने पूरी जिम्मेदारी से इस तरह का फैसला लिया जिस की वजह से मजदूरों को खाने-पीने तक के लिए तड़पना और गिड़गिड़ाना पड़े। हालांकि, इस मत को उस समय अभिषेक और उसके साथियों मे ज्यादा समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। यह बहस चल ही रही थी कि लेबर चौक पर पुलिस के दो गश्ती वाहन आ पहुंचे। उन्मे बैठे आठ कर्मी लट्ठ लेकर बाहर आए और बिना किसी सूचना या पूछताछ के वहाँ उपस्थित मजदूरों पर बेरहमी से बरस पड़े। यह पिटाई का तांडव तब तक बे-रोक-टोक चलता रहा जब तक सारे मजदूर वहाँ से जान बचा के भाग नहीं निकले। उनमे से कोई भी ऐसा न था जो लाठी की इस साजिश से बिना घाव के बच पाया हो, और बहुतों का हाल तो ऐसा हो गया था कि वो एक-आध हफ्ता कोई काम न कर पाए।
इस घटना के बाद सभी को समझ आ गया था कि शहर मे पक्की तालाबंदी लग चुकी है, और, पिछले कई बरसों के उत्पीड़न सहने के अनुभव से उन्हे यह भी भली-भांति मालूम था कि प्रशासन के सारे यंत्र, जैसे की पुलिस, गरीब मजदूरों के माथे ही सभी नियमों-कायदों के उल्लंघन का भांडा फोड़ेगी। अभिषेक और शंकर को मिली पिटाई बस शुरुआत ही थी, अभी अन्य प्रकार के हथकंडों से उन्हे परेशान करने के तरीके अपनाए जाने बाकी थे। लाठी-चार्ज से आयी चोटों के कारण लेबर चौक से मुड़ कर वापस घर जाने का रास्ता काफी कठिन हो गया था और उन्हे फिरसे अपनी बस्ती मे दाखिल होने मे लँगड़ाते-लँगड़ाते तकरीबन पैंतालीस मिनट लग गए। अभिषेक रोष से उबल रहा था और उसके ज़ेहन मे एक चेतना की चिंगारी जाग रही थी कि हमेशा उसके वर्ग के लोगों के साथ ही ऐसा एकतरफा इंसाफ होता है जहां उन्हे अत्याचार का पात्र बना दिया जाता था। जब वह घर पहुंचा तो पाया कि सुशीला और गौरव दोनों ही पहले से अंदर बैठे थे। घर की हवा मे उदासी छाई थी। जब अभिषेक ने सुशीला की तरफ रुख करके उससे आँखें मिलाई, तो दोनों ही एक-दूसरे का तनाव झट से समझ गए और उनके मन का गम गुणा हो गया। अपनी-अपनी ठोकरों की कहानिया सांझा कर थोड़ी देर पति-पत्नी ने सन्नाटा बनाए रखा, पर फिर मानो एक दम ही उनकी सब्र और सहनशीलता का बांध टूट गया और वह बिखर गए। सुशीला ने अभिव्यक्ति का मौका पा कर अपने अंदर लाद रखा सारा गुस्सा उलट दिया। उसने उन रिहायशी इमारतों मे रहने वाले मध्य वर्गीय लोगों की अकड़ और गुरूर पर खूब गालियां फेंक मारी। यह सब सुनकर अभिषेक ने सुशीला को आलिंगन मे भर लिया और अपनी तरफ से भी दो-चार अपशब्द जोड़ कर उसका साहस बढ़ाया।
कुछ देर बाद अभिषेक ने सुशीला से पूछा कि क्या घर मे अगले कुछ दिनों तक काम चलाने लायक खाने-पीने की सामग्री उपलब्ध थी या नहीं। सुशीला ने उसे बताया कि बस हफ्ते-भर के लिए दो वक्त की रोटी बनाने के लिए आटा रह रहा था, इसके अलावा दो-दो कटोरी अरहर और उड़द की दाल बची हुई थी, जबकि आलू-प्याज और नमक लगभग खतम होने की कगार पर ही थे। वह दोनों समझ चुके थे कि अब कुछ दिन तो पेट में चूहे पाल कर काटने पड़ेंगे जब तक की राशन लाने का उपाय नहीं मिलता। परंतु सुशीला को दूसरी चिंता यह सता रही थी कि अगले माह का किराया भरने के बाद उनके पास राशन खरीदने के लिए पैसे बचेंगे ही नहीं, क्योंकि अगले कुछ दिन तक उन्हे कोई वेतन भी नहीं मिलेगा। मुफ़्त राशन मुहैया कराने की कोई व्यवस्था सरकार की तरफ से होने वाली है, यह जानकारी अभिषेक ने सुशीला को सुनाई और उम्मीद जताई कि कोई-न-कोई रास्ता निकल आएगा। अभिषेक अपने बच्चे की मासूम किलकारियां देख के कुछ सोच ही रहा था की सुशीला ने एक और बोझ भरा सवाल उसके समक्ष प्रस्तुत कर दिया। उसने पूछा कि अगर विद्यालय ही बंद हो गए है, तब बच्चों के मिड-डे मील का प्रबंध कहां से और कैसे होगा? पर इस प्रश्न का जवाब न तो उन दोनों में से किसी के पास था और न ही सरकार के पास, केवल इसलिए क्योंकि इस प्रकार का कोई प्रबंध किया ही नहीं गया था। अगले पाँच दिनों तक उनका सिलसिला ऐसे ही चलता रहा जिसमे अभिषेक और सुशीला काम पर लौटने की राह देखते रहे और लगातार इतनी देर तक बिना किसी आय के रहने पर मजबूर हो कर भय मे डूब गए। अब उनका राशन भी खतम होने की कगार पर था, लेकिन तालाबंदी खतम होने के लिए अभी भी दो हफ्तों का समय शेष था।
छटे दिन अभिषेक और शंकर ने राशन का इंतेजाम करने जाने का फैसला किया और सुबह नौ बजे अपनी खोज में निकल गए। उन्हे खबर मिली थी की सरकार की तरफ से गेंहू, चावल और मोटा अनाज मुफ़्त मे वितरित किया जा रहा है, अत: वह अपने आधार और राशन पत्र ले कर चले थे। बस्ती से बाहर निकलने पर दोनों सतर्क और सावधान हो गए कि कहीं से पुलिस बल उन्हे देख कर पकड़ न ले, क्योंकि अगर ऐसा हुआ, तो पिटाई के साथ-साथ उन पर भारी जुर्माना भी थोप दिया जाएगा जो उनकी बची-कुची जमा पूंजी खतम कर देगा। हर आधे मिनट मे वह चौकन्ना हो कर सुनते थे कि कहीं आगे किसी मोड पर पुलिस उनका इंतज़ार तो नहीं कर रही है। इस तरह चलते-चलते वह किसी तरह राशन केंद्र तक पहुंचे और वहाँ उन्होंने एक सांप जैसी लंबी कतार देखी जो केंद्र के ठीक बाहर से शुरू हो कर सड़क पर सौ मीटर तक खिंची हुई थी। यहाँ से वो कतार फिर केंद्र की तरफ मुड़ कर सौ मीटर तक चली और ऐसे ही तीन मोड और लेते गई। गौरतलब की बात यह थी कि सभी लोगों के बीच दो गज की दूरी बनाए रखने के लिए पुलिस निगरानी कर रही थी और जो व्यक्ति ज़रा भी इधर-उधर हो रहा था, उसके साथ अपने मन-मुताबिक बर्ताव कर रही थी। अपने अचंभे से उभर कर अभिषेक और शंकर भी कतार में मिल गए जहां उन्हे पता चला कि अभी तक तो राशन केंद्र खुला भी नहीं था। तीन घंटे खड़े रहने के बाद अभिषेक की बारी आयी और उसे केंद्र मे भीतर जाने को कहा गया। तीन बार अभिषेक की उंगलियों को मशीन पर लगाने के बाद भी जब आधार का फिंगरप्रिंट सत्यापन नहीं हो पाया, तो संचालक ने हार मानकर अभिषेक से बाहर जाने को कह दिया। अभिषेक पहले समझ नहीं पाया कि उसे बाहर जाने को क्यों कहा गया है, पर बाहर आने के दस मिनट बाद उसने कतार मे अपने से पीछे खड़े कुछ व्यक्तियों को राशन के साथ निकलते देखा तो उसका सर चकराया और वह वापस अंदर दौड़ा।
अंदर जा कर उसने संचालक से हल्की ऊंची आवाज मे जानना चाहा कि उसके हिस्से का राशन उसे अभी तक क्यों नहीं मिला। संचालक ने अभिषेक को समझाया कि राशन लेने के लिए सरकार की परियोजना के मुताबिक हर व्यक्ति के आधार पत्र का सत्यापन उनके फिंगरप्रिंटस से करना जरूरी है, परंतु अभिषेक की उंगलियों से उसके फिंगरप्रिंटस मिट चुके थे इसलिए यह करना मुमकिन नहीं था। यह सुनकर अभिषेक ने बड़ी सहजता से पूँछा कि अगर उसके हाथ से फिंगरप्रिंटस मिट गए है तो क्या सत्यापन करने और राशन पाने का उसके पास कोई रास्ता नहीं है। जब संचालक ने अभिषेक को नकार दिया तो वह अपना आपा खो बैठा और चिल्लाने लगा कि राशन केंद्र के सभी कर्मचारी चोरी कर रहे थे और वह मिल-जुल कर उसके हक का अनाज निगल जाएंगे। संचालक ने क्रोधित हो कर उसे अशिष्टापूर्वक ढंग से कहा कि वो किसी और का समय बर्बाद करे और जल्दी बाहर भागे। इतने मे शोर सुन कर वहाँ दो हवलदार आ गए जिन्होंने संचालक के कहने पर अभिषेक को चार-पाँच बेमतलब के थप्पड़ मारे और उठा कर बाहर पटक दिया। इस तरह अपमानित होने की निराशा और खाली हाथ घर लौटने के दृश्य की कल्पना कर वह उसी जगह पर लैट गया और रोने लगा। उसकी नमी भरी आखों मे अभिषेक को अपने बीवी-बच्चे के चित्र नाटकीय अवतार मे दिखाई देने लगे। उसने देखा कि सुशीला अपने आत्म-सम्मान की बलि चढ़ा कर उन सारे घरों मे जा कर अपने परिवार के लिए भीख मांग रही थी जहां वो काम करा करती थी। अभिषेक ने ये भी देखा कि सुशीला को हर जगह यही ताना सुनना पड़ रहा था कि उसके जैसे नीच लोग ऐसे ही तड़प के मरने के लायक है क्योंकि वो कभी मेहनत नहीं करते और दूसरों के पैसों पर परजीवी बन जाते है।
यह सोच के जब अभिषेक मानसिक उत्पीड़न से गुज़र रहा था और एक चोटिल दिल के दर्द से कराह रहा था, तब उसके मित्र शंकर और आस-पास खड़े कुछ अन्य लोगों ने अपने राशनों मे से कुछ हिस्सा अलग कर के अभिषेक को देने कि चेष्टा की। उन्होंने उसे दिलासा दिलाई की वह इस लड़ाई मे अकेला नहीं है। शंकर ने उसे समझाया कि वह फिरसे अलग-अलग राशन केंद्रों मे जा कर कोशिश करेंगे और कही-न-कही पर काम बन ही जाएगा। इतना देख-सुन कर अभिषेक कुछ हद तक होश मे आया तो वह दोनों वहाँ से रवाना हो गए और बिना एक शब्द बोले अपने-अपने घर लौटे। घर पर सुशीला और गौरव को सही सलामत देख कर अभिषेक थोड़ा खुश हुआ, किन्तु आने वाले दिनों कि चिंता अब उसे और तीखे स्वर मे सताने लगी थी। अगले एक हफ्ते मे अभिषेक, सुशीला और शंकर ने कई जगह जा कर राशन लेने कि कोशिश करी और आखिर मे एक जगह उन्हे सफलता प्राप्त हुई, जिसके चलते सबको कुछ राहत मिली। पर इस राहत की सांस के पीछे वह भी भली भांति जानते थे कि यह राशन ज्यादा दिन चलेगा नहीं और अब तो उनके पैसे भी समाप्त हो गए थे। खोली-मालिक के सामने गिड़गिड़ाने के बाद भी किराए मे कोई रियायत उन्हे नहीं मिली थी और साहूकार भी अपनी पूरी ब्याज वसूली कर के ही माना। इन दोनों चरित्रों से निपटने के बाद अभिषेक और सुशीला का मध्य वर्ग के खिलाफ क्रोध का पारा और ऊपर चढ़ चुका था। जिस तरह मध्य वर्ग के लोग गरीब मजदूरों पर मेहनत न करने का लांछन उछालते थे और फिर आँखें मूँद कर ब्याज की वसूली पर गुजारा करते थे, इससे वह दोनों आग बबूले हो उठे थे।
तालाबंदी को लगे हुए दो हफ्ते हो चुके थे और अब एक नई यातना यादव परिवार के दरवाजे पे दस्तक दे रही थी। गौरव के विद्यालय से छात्रों को संदेश भेजा गया था कि सभी कक्षाओं की पढ़ाई अब इंटरनेट सुविधा के माध्यम से करवाई जाएंगी और साथ ही एक समय सारिणी भी भेजी गई थी जिसके मुताबिक छात्रों को कक्षा मैं मौजूद रहना होगा। इस तरह की ऑनलाइन कक्षा में भाग लेने के लिए एक स्मार्टफोन, टैबलेट या लैपटॉप का होना आवश्यक है, जिनमे से यादव परिवार की खोली मे कोई भी उपस्थित नहीं था। अभिषेक और सुशीला का काम पुराने नोकिया के "डब्बे" फोन से ही चल जाता था और उन्होंने कभी स्मार्टफोन नहीं चलाया था। जब उन्होंने अपने आस-पास के लोगो से स्मार्टफोन का मूल्य पूछा, तो वह हक्के बक्के रह गए क्योंकि उसे खरीद पाना उनके बस के बाहर था। पांच हजार तो क्या, उनके पास इस वक्त पचास रुपए भी फालतू नही थे। मन को घंघोरने वाली समस्या अब ये खड़ी हो चुकी थी कि अभिषेक और सुशीला गौरव की पढ़ाई में कोई अड़चन नहीं चाहते थे, पर स्मार्टफोन में निवेश करना भी उनके लिए हर तरह से असंभव था। पहले से किश्तों और उनके ब्याज को समय से चुकाने के बोझ से लदे हुए इस परिवार के पास अतिरिक्त कर्ज लेने का उपाय भी नही था। ऐसे में मन पसीज कर आखिर उन्हें कोई राह न दिखने पर हार माननी पड़ी और बहुत दुख से गौरव को पढ़ाने का सपना भी तोड़ना पड़ा। गौरव को भी जब यह समझ आया कि वह अपनी कक्षा से बाहर हो चुका था तो वह अपने पापा-मम्मी के सामने काफी रोया और गिड़गिड़ाया कि वह उसे फिर विद्यालय भेजना शुरू करें।
अपने बच्चे के इन पीड़ा भरे आंसुओ को जड़ से पोंछने में नाकाम हो कर सुशीला को काफी दर्द हुआ और उसने ठान लिया कि वह कोई न कोई समाधान ढूंढ कर ही मानेगी। उसने अगले दिन सुबह से ही अपने डब्बे फोन से हर उस घर में कॉल लगाना शुरू कर दिया जहां उसने कभी भी कुछ काम किया हो। जो भी कोई सुनने को तैयार था, सुशीला ने उसे अपनी दुविधा समझाई तथा मदद मांगी। जैसा कि उसको पता था, ज्यादातर लोगो ने उसकी कथा सुनकर उल्टा उसे ही फटकारा कि वो मुफ्तखोरी न करे; कुछ लोगो ने अपनी संवेदना व्यक्त करी और साथ ही मदद करने में असमर्थता जाहिर की; पर आखिर में जा कर सुशीला को एक शख्स मिल ही गया जिसने एक स्मार्टफोन उसे देने का वादा किया। उसी शाम जा कर सुशीला स्मार्टफोन को ले आई और बड़ी प्रसन्नता से गौरव के हाथो में थाम दिया। वह शाम बहुत दिनो बाद यादव परिवार की खोली में कुछ आनंद के पल ले कर आई थी। इस वजह से अभिषेक और सुशीला को पिछले दो हफ्तों में पहली बार संतुष्टि की नींद भी प्राप्त हुई। पर यह संतुष्टि बस कुछ चंद पलों की ही रह गई थी क्योंकि अगली सुबह एक और चुनौती का सामना उन्हें करना पड़ा। गौरव ने जब अपनी ऑनलाइन कक्षा में शामिल होने की चेष्टा की तो उन्हें पता लगा कि ऐसा करने के लिए स्मार्टफोन में इंटरनेट सेवा भी अलग से खरीद कर डलवानी पड़ती है, जो कि हर महीने उनकी जेब पर दो-से-तीन सौ रुपए का डाका डाल जाएगा। दैनिक वेतन के अभाव में यह खर्च उठाना भी उनके लिए सोच से परे था और इसलिए एक बार फिर गौरव की पढ़ाई की आकांक्षाओं पर मायूसी भरा लगाम लग गया।
किसी तरह तीसरा हफ्ता खतम होने की कगार पर आया तो सुशीला ने सब का मनोबल बढ़ाना चाहा और उन्हे याद दिलाया की तालाबंदी अब खतम होने ही वाली है, जिसका मतलब ये होगा की वह फिर अपनी दिनचर्या में लौट सकेंगे। अभिषेक ने भी सोचा कि भले ही पहले वाली जिंदगी में ज्यादा गुण नही थे, पर फिर भी उसमे जिंदा रहने का एक मकसद था जो अभी अधूरा था। उसको इस बात का भी हर्ष हुआ कि वह एक बार फिर अपनी खून पसीने की कमाई से आत्म सम्मान के साथ गुजारा कर पाएंगे, न कि किसी पर परजीवी बन कर या फिर मुफ्त राशन के लिए लाठी की मार सह कर। सुशीला ने गौरव को यह कह कर लुभाया कि जब उसका विद्यालय फिर खुल जाएगा, तो वह उसका दाखिला तुरंत करवा देगा और गौरव अपने दोस्तो से जल्द ही मिल पाएगा। सुशीला के मन में अभी भी मध्य वर्गीय श्रेणी के लोगो के लिये वही कठोरता तैर रही थी, इसके बावजूद उसने तय कर लिया था कि वह फिर से पूर्ण समर्पण के साथ काम करने जाया करेगी जिस से उसके परिवार को दोबारा ऐसी विपत्ति न देखनी पड़े जहां घर में खाने को कुछ न हो, उसके पति को राशन लाने के लिए तड़पना पड़ जाए और उसके बेटे की पढ़ाई में पैसे की कमी एक अड़चन बन जाए। परंतु, उसी शाम जब टीवी पर प्रधान मंत्री ने पुनः दूसरी बार तालाबंदी के गतिरोधको को दो हफ्तों के लिए बढ़ाया, तो मानो एक ही पल में उनका सारा साहस और संकल्प टूट पड़ा। एक आशा की मोमबत्ती जो अब तक उनके दिल को रोशनी दे रही थी, वह भी फड़फड़ा के बुझ गई। प्रधान मंत्री ने तो सभी देशवासियों के बीमारी को हराने में दृढ़ संकल्प की तारीफ कर दी थी, किंतु उन्होंने बड़ी ही सफाई से यादव परिवार जैसे अनेक गरीब और मेहनतकश देशवासियों को मरने-मारने के लिए छोड़ दिया था। क्या उनके लिए यह लोग देशवासी नही थे, या वह ऐसा समझते थे की गरीब जनता की देखभाल करना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी? शायद ऐसा ही लगा होगा की यह लोग तो वैसे भी आम जिंदगी में पिसते-दबते-मरते रहते है, इनकी तकलीफों को नजरंदाज कर देने से कोई फर्क नही पड़ेगा। या शायद उनकी ऐसी सोच रही होगी की इन गरीब मजदूरों का मर जाना ही सही है, जिस से उनके मन में डर पैदा हो जाए और वो पहले से ज्यादा उत्पीड़न एवं जोखिम भरी जिंदगी जीने को मजबूर करे जा सके। आखिर ऐसी स्तिथि में ही तो पूंजीपतियों और कारखाना मालिको का मुनाफा बढ़ पाएगा।
तालाबंदी बढ़ने का एलान सुनने के बाद अभिषेक और सुशीला को यह बात साफ हो चुकी थी कि अब वो घर बैठकर इस संकट को आगे नही झेल पाएंगे। उनकी घर बंद रहने की क्षमता अब खतम हो चुकी थी क्योंकि न तो उनके पास अगले माह का किराया देने के पैसे थे और न ही कोई पक्का काम था जिसके बल पर वह घर चला सके। ऊपर से उनके बेटे गौरव की पढ़ाई भी रुक चुकी थी, अत: उनके पास मुंबई जैसे शहर में रहने का कोई मतलब नहीं बचा था। अभिषेक ने सुशीला को बताया कि उसका मित्र शंकर भी इसी आपदा से बच निकलने के लिए अपने परिवार को ले कर झांसी में अपने गांव जाने की तैयारी में जुटा था। सुशीला ने सवाल किया कि वो झांसी तक कैसे पहुंचने वाले थे जब कोई रेलगाड़ी या बस की सवारी उस वक्त नही चल रही थी। अभिषेक ने इसका जवाब देने से पहले थोड़ा संकोच किया पर फिर बताया कि उन्होंने फिलहाल बस्ती से मुंबई की सीमा तक पैदल जाने का सोचा था, जहां से आगे कुछ हजार रुपए ले कर लोग ट्रकों में माल की तरह बंद कर के उत्तर भारत भेजे जा रहे थे। खबरों में ऐसा भी आ रहा था की लोग यहाँ से उत्तर प्रदेश और बिहार तक की पूरी-पूरी यात्रा पैदल या फिर सायकिल पर तय कर रहे है। इतना सुन के सुशीला का सर चकरा गया और उसने बेचैन आवाज में अभिषेक को कहा कि वह तीनों ऐसी कोई भी खतरनाक तरकीब लगा के कहीं नही जाएंगे। अभिषेक ने काफी कोशिश की सुशीला को राज़ी करने के लिए कि वह लोग भी पैदल ही मुंबई छोड़ कर चले जाए, पर वह टस-से-मस न हुई। हालांकि, अगली सुबह जब वह दोनो शंकर और उसके परिवार को बस्ती से विदा करने पहुंचे, तो सुशीला सोचने पर मजबूर हो गई कि यहीं पर पड़े रह कर सड़ के मरने से तो बेहतर ही होगा कि वह लोग भी अपने गांव चले जाने की कोशिश करे और अपनो के बीच लौट जाए।
इतने दिनो में उनका सारा राशन खतम हो चुका था और वह एक वक्त की एक रोटी खा कर ही काम चला रहे थे। थोड़ा बहुत खाने-पीने का सामान जो इधर-उधर से उन्हे नसीब हो जाता, वह उसी पर निर्भर थे। किसी भी चीज के इस्तेमाल पर बहुत सोच समझकर विचार किए जाने से सभी हताश और निराश हो गए थे। गौरव दिन में कई बार अपने माता-पिता के पास आकर कहता था कि उसे भूख लग रही है और पेट में चूहे दौड़ रहे है, पर उसकी शिकायतों को नजरंदाज करने और उनसे मुंह फेर लेने के सिवा अभिषेक और सुशीला के पास कोई उपाय नहीं था। अभिषेक कई बार सुशीला से अपना डर सांझा करता था कि अगर आगे भी ऐसे ही चलता रहा, तो एक दिन वे पूरी तरह हृदयहीन बन जायेंगे। कई बार कुछ समाजसेवी लोग उनकी बस्ती में खाने के पैकेट बांटने आते थे और ऐसे मौकों पर बस्ती के सभी लोग - जवान, बुड्ढे और बच्चे - भीड़ लगा के लड़ने लग जाते थे ताकि उन्हे भी कुछ हाथ लग जाए। एक बहुत ही अतरंगी परिस्थित यहां दिखाई देती थी जिसमे समान बांटने वाले भीड़ को मास्क लगाने और सामाजिक दूरी का पालन करने को कहते रहते थे जिस से उन्हे महामारी अपना शिकार न बना सके; पर लोग इन सब चीजों का पालन करने में ज़रा भी दिलचस्पी नही रखते थे क्योंकि उनका शिकार महामारी नही बल्कि भुखमरी कर रही थी। बीमारियो का इलाज करवाने के लिए तो उनके पास पहले से ही पैसे नही थे, इसलिए उसका डर भी खतम हो गया था। उन्हे पता था कि अगर बीमारी उन्हे जकड़ लेगी तो मानो मौत का पैगाम आ चुका है।
स्तिथि के बद से बदत्तर होते जाने के मद्देनजर, सुशीला पैदल यात्रा शुरू करने के लिए न सिर्फ तैयार हो गई थी, बल्कि अब वह मुंबई से बाहर निकलने की उत्सुकता से राह देख रही थी। उसने अभिषेक के साथ मिल कर गांव तक सुरक्षित पहुंचने की योजना बनानी शुरू कर दीं थी, परंतु रास्ते में आने वाली कठिनाइयों के विषय में ठोस सूचना या जानकारी न होने की वजह से कोई पुख्ता नीति रच पाना मुश्किल था। एक मुसीबत यह भी थी कि उनके पास मुंबई से बाहर निकलने के पश्चात ट्रक या बस की सवारी लेने के लिए पैसे नही थे। इसके बावजूद उन्होंने साहस भरा निर्णय लिया की वह अपने पैरो से ही आगे बढ़ते रहेंगे और अपने गंतव्य तक जायेंगे, चाहे कितना भी समय लग जाए। अप्रैल में गर्मी अपने चरम पर थी तथा उत्तर भारत की तरफ चलने पर और कठोर होती जाएगी, यह सोचकर अभिषेक-सुशीला आपस में चर्चा कर रहे थे कि कितना और क्या सामान उन्हे अपने साथ ले कर निकलना चाहिए एवं क्या पीछे छोड़ देना चाहिए। उसी समय उन्होंने टीवी पर खबर देखी कि महाराष्ट्र के ही औरंगाबाद ज़िले में एक मालगाड़ी ने पटरी पर आराम कर रहे सोलह मजदूरों को कुचल दिया। वह सोलह मजदूर भी यादव परिवार की तरह विपरीत परिस्थितियों से परेशान हो कर अपने गृहनगर की ओर बढ़ रहे थे। इस खबर के साथ-साथ टीवी पर पिछले कुछ दिनों में हुई ऐसी ही ढेर सारी और घटनाओ का भी वर्णन दिया गया जहां हाईवे पर पैदल चल रहे लोग गाड़ियों के चपेट में आ गए थे या फिर लोगो से भरी हुई बस और ट्रक पलट गए थे। एक खबर तो ऐसी भी आई जिसमे पत्रकार ने सुबह उन्नीस लोगो से भरे हुए एक टेंपो के चालक से साक्षात्कार किया जहां उसने बताया था कि वह अपने परिवार और अन्य लोगो को ले कर मुंबई से लखनऊ जा रहा है; पर शाम को जब पत्रकार उसी रास्ते पर थोड़ा आगे बढ़ रहा था, तब उसे वही टेंपो सड़क किनारे पलटा हुआ मिला और जानकारी प्राप्त हुई की हादसे में चालक की मौत हो चुकी थी। ऐसी खबरे सुनकर दोनो सुशीला और अभिषेक को एक भयभीत मंजर दिखाई दिया और उन्होंने अपनी सारी योजनाएं तुरंत वहीं दफन कर दी।
सिलसिला अब काफी पेचीदा हो चुका था, जहां एक तरफ खाई थी तो दूसरी तरफ पहाड़! ऐसे में यादव परिवार के लिए समझना बहुत मुश्किल हो चुका था की उन्हे आखिर क्या कदम उठाना चाहिए। एक बार फिर महीना खतम होने को आ रहा था और इस बार उनके पास किराया भरने का कोई उपाय नहीं था। खोली मालिक ने किसी भी प्रकार की छुट देने से मना कर दिया था। साहूकार भी अब उनके ऊपर दबाव बना रहा था कि वो अतिरिक्त ब्याज के साथ कर्ज चुकाए नही तो वह उनकी सारी बची-कुची संपत्ति जब्त कर लेगा। उनका कर्ज मात्र बीस हजार रुपए का था जो उन्होंने एक साल पहले खोली मालिक को जमा-राशि के तौर पर देने के लिए उठाया था, परंतु, इन बीस हजार पर वह चालीस प्रतिशत ब्याज के साथ बाइस हजार रुपए अब तक भर चुके थे और फिर भी छह हजार रुपये बच रहे थे। खोली मालिक अगले महीने का किराया नहीं भर पाने की वजह से जमा-राशि जब्त कर लेगा; फिर न तो उनके पास रहने को खोली बचेगी और न ही वह बीस हजार रूपए वापस मिलेंगे। साहूकार और खोली मालिक की ओर से जो शोषण सहना पड़ेगा वो अलग। उन लोगो के लिए कितना आसान जान पड़ता था यादव परिवार जैसे मेहनतकश लोगो की आपत्तियों का फायदा उठाना और विनाश कर देना, मानो आपदा में अवसर ढूंढने का जुमलेदार नारा प्रधान मंत्री ने उनके लिए ही इजाद किया हो। अपनी मेहनत से समाज में उत्पादक काम तो अभिषेक-सुशीला कर रहे थे, पर उसका सारा फायदा साहूकारों, सूदखोरों, संपत्ति मालिकों और अन्य बड़े पूंजीपतियों को ही मिल रहा था। ऐसी शोषण एवं उत्पीड़न के जरिए मुनाफा उजागर करने वाली सामाजिक प्रणाली पर सवाल उठने तो लाज़मी है।
अभिषेक और सुशीला का मानसिक तनाव अपने उच्चतम स्तर पर आ चुका था, नतीजतन वह बीमार पड़ने लगे। खुद तनाव-ग्रस्त एवं बीमार हो कर वह गौरव का भी खयाल नहीं रख पा रहे थे और वह भी भूख-प्यास से कराह रहा था। ऐसे दलदल में फस जाने तथा इस से बाहर निकलने के लिए कुछ भी न कर पाने का अपने आप पर गुस्सा उन सब के दिल में चोट कर गया था और वह अपनी भौतिक परिस्तिथियो का आकलन कर बौखला गए थे। उनको जिंदगी की नाव से धक्का मार कर भूख, बीमारी और कर्ज के एक ऐसे समुंदर में डुबाया गया था जिसमे से अपना बचाव करना संभव नहीं रह गया था। सिर्फ यादव परिवार ही नही, उनके जैसी अनेक छोटी-छोटी नावों में से लोग इसी तरह से डूब रहे थे। ऐसा नहीं था की इन सभी को बचाया नही जा सकता था, क्योंकि समंदर में पैर पसारे हुए कई आलीशान जहाज भी थे जो उन सभी नावों का बोझ बेहतरीन तरीके से संभालने की क्षमता रखते थे, पर फिलहाल वह सामाजिक हित में इस्तेमाल होने के बजाय सिर्फ चंद पूंजीपतियों के एकाधिकार में थे। जिन मजदूरों ने इन जहाज़ों का निर्माण किया और मरम्मत की, उन्ही को जहाज़ों के अंदर जगह नही दी गई, जबकि उन मजदूरों के श्रम पर असल में परजीवी बने हुए पूंजीपति ऐशों-आराम से भीतर हंसी-मजाक कर रहे थे। अंत में अभिषेक-सुशीला ने फैसला किया कि ऐसे फड़फड़ाकर सांस लेने के बजाए उनको अपनी कहानी को यहीं खतम कर देना चाहिए। रात के खाने में ज़हर मिला कर उन तीनों ने एक आखरी, सुखद नींद ली और उनका वहीं ध्वंस हो गया - पर यह किस्सा एक आत्महत्या का नही, बल्कि खून का था।
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